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आजादी के बाद संविधान में जाति आधारित आरक्षण का प्रावधान किया गया जो कि तत्कालीन सामाजिक, शैक्षणिक परिस्थितियों के अनुसार काफी हद तक उचित भी था. पर समय के साथ हमारी सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक बदलाव हुए हैं और वर्तमान समय में ऐसा कोई ठोस कारण नही दिखता जिसके आधार पर जाति आधारित आरक्षण को ठीक कहा जा सके. लिहाजा कहना गलत नही होगा कि समय की मांग को देखते हुए जाति आधारित आरक्षण में भी परिवर्तन के लिए भी विचार होना चाहिए. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संविधान की निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण के जरिये किसी एक निश्चित अवधि में समाज की दबी-पिछड़ी जातियां समाज के सशक्त वर्गों के समकक्ष आ जाएंगी और फिर आरक्षण की आवश्यकता धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी. इसी कारण उन्होंने आरक्षण के विषय में यह तय किया था कि हर दस वर्ष पर आरक्षण से पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों की समीक्षा की जाएगी और जो तथ्य सामने आएंगे उनके आधार पर भविष्य में आरक्षण के दायरों को सीमित या पूर्णतः समाप्त करने पर विचार किया जाएगा. पर जाने क्यों कभी भी ऐसी कोई समीक्षा नही हुई और आधिकारिक रूप से देश आज भी इस बात से अंजान है कि आरक्षण से लाभ हो रहा है या हानि. साथ ही, आरक्षण के जिस दायरे को समय के साथ सीमित करने बात संविधान निर्माताओं ने सोची थी, वो सीमित होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है. आजादी के बाद संविधान में जाति आधारित आरक्षण का प्रावधान किया गया जो कि तत्कालीन सामाजिक, शैक्षणिक परिस्थितियों के अनुसार काफी हद तक उचित भी था. पर समय के साथ हमारी सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक बदलाव हुए हैं और वर्तमान समय में ऐसा कोई ठोस कारण नही दिखता जिसके आधार पर जाति आधारित आरक्षण को ठीक कहा जा सके. लिहाजा कहना गलत नही होगा कि समय की मांग को देखते हुए जाति आधारित आरक्षण में भी परिवर्तन के लिए भी विचार होना चाहिए. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संविधान की निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण के जरिये किसी एक निश्चित अवधि में समाज की दबी-पिछड़ी जातियां समाज के सशक्त वर्गों के समकक्ष आ जाएंगी और फिर आरक्षण की आवश्यकता धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी. इसी कारण उन्होंने आरक्षण के विषय में यह तय किया था कि हर दस वर्ष पर आरक्षण से पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों की समीक्षा की जाएगी और जो तथ्य सामने आएंगे उनके आधार पर भविष्य में आरक्षण के दायरों को सीमित या पूर्णतः समाप्त करने पर विचार किया जाएगा. पर जाने क्यों कभी भी ऐसी कोई समीक्षा नही हुई और आधिकारिक रूप से देश आज भी इस बात से अनभिग्य है कि आरक्षण से लाभ हो रहा है या हानि. साथ ही, आरक्षण के जिस दायरे को समय के साथ सीमित करने बात संविधान निर्माताओं ने सोची थी, वो सीमित होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है. अतः सरकार को चाहिए कि वो सिर्फ आरक्षण देकर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री न समझे बल्कि इस बात का भी अध्ययन करे कि आरक्षण का लाभ सही मायने में जिन्हें मिलना चाहिए उन्हें मिल भी रहा है या नही. इस अध्ययन के बाद स्पष्ट रूप से सरकार समझ सकेगी कि आरक्षण का जातिगत आधार ही गलत है, इसे आर्थिक आधार पर किए बिना इसका लाभ सही और वास्तव में पिछड़े व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकता. अगर इन बातों पर सरकार सही ढंग से ध्यान देती है तो ही हम आरक्षण के उस उद्देश्य को पाने की तरफ अग्रसर हो सकेंगे जिसके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. अन्यथा तो आरक्षण एक अंतहीन प्रक्रिया की तरह जारी रहेगा जिसका कोई अर्थ नही होगा.