जहाँ तक आर्थिक असमानता का सवाल है ओ ई सी डी की रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो दशकों में भारत में आय संबंधी असमानता में दोगुने का इजाफा हुआ है. विचारक श्री खिलनानी के अनुसार एक दशक पहले किए गए एक सर्वे के अनुसार भारत में असमानता का स्तर ब्राजील से भी अधिक है. आर्थिक असमानता के संबंध में भारत की केंद्रीय और राज्य सरकारों के प्रयास खैरात बाँटने जैसे ही रहे हैं जो समस्या को स्थाई रूप से हल नहीं कर सकते. केंद्रीय सरकार इस दिशा में मनरेगा और खाद्य सुरक्षा अधिकार को अपनी उपलब्धियों के रूप में गिनाती है. पर यह योजनाएं अस्थाई उपाय जैसी हैं जो व्यक्ति को आत्मनिर्भर नहीं बनाती हैं. जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है वह देश की आर्थिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी नहीं कर सकता. राज्य सरकारों में भी कमोबेश केंद्र जैसी यही प्रवृत्ति है. भा.ज.पा. शासित छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री श्री रमन सिंह ‘चावल वाले बाबा’ कहलाते हैं क्योंकि उन्होने सस्ती दर पर गरीबों के लिए चावल उपलब्ध करवाया है जबकि इसी दल द्वारा शासित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान बालिकाओं के लिए अपनी आर्थिक सहायता योजनाओं के कारण ‘मामाजी’ कहलाते हैं.
आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि देश के सभी नागरिकों को ,उन्हें भी जो आज की तारीख में गरीब को परिभाषित करते हैं , आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी करने का अवसर मिले. इसके लिए आर्थिक विकासोन्मुखी (ग्रोथ ओरिएंटेड) नीतियाँ आवश्यक हैं जिसकी तरफदारी श्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. राहुल गाँधी ने भी अपने प्रथम औपचारिक साक्षात्कार में उत्पादन(मैन्युफैक्चरिंग ) पर जोर देने की बात कही है. पर पिछले पाँच वर्षों के दौरान केंद्रीय सरकार ने इस दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है . आर्थिक गतिविधियों में बढोत्तरी औरर आम नागरिकों की उसमें भागीदारी के लिए देश के अपने बाजार के विकास और उसमें अधिक से अधिक भारतीयों की किसी न किसी रूप में भागीदारी के अलावा निर्यात की नई संभावनाओं को तलाशा जाना महत्वपूर्ण है. निर्यात की संभावनाएं भी नए-नए बाजारों की खोज, उनकी जरूरत के सामान की पहचान और कमतर लागत रखते हुए अच्छी गुणवत्ता के साथ उनके निर्माण और उत्पादन द्वारा ही बेहतर की जा सकती हैं . चीन ने सफलतापूर्वक इसे कार्यान्वित किया है. दूसरे इस दिशा में हमें सघन प्रयास करने होंगे क्योंकि आज के दौर में निर्यात अब उतना आसान नहीं रह गया है. आर्थिक समस्याएं हर देश के सामने किसी न किसी रूप में हैं और विभिन्न देशों की सरकारें ‘प्रोटेक्शनिस्ट” हो चली हैं. विशाल आबादी के कारण स्वयं हमारे देश में ही एक बडा बाजार है.जरूरत इस बात की है कि अधिक से अधिक जनता के पास क्रयशक्ति हो और उसमें निरंतर बढोत्तरी हो जो औद्योगिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों को प्रोत्साहन दिए जाने पर तथा उसमें अधिक से अधिक लोगों के सक्रिय भाग लेने पर निर्भर है.
देश में गरीबी की स्थिति को देखते हुए सहायता योजनाओं तथा कार्यक्रमों को पूरी तरह बंद नहीं किया जा सकता पर सामान्य जनता पर आर्थिक भार तथा आर्थिक घाटे को कम से कम रखने के लिए उसे गरीब तबके तक सीमित किया जाना चाहिए. सबको आत्मनिर्भर बनाने तथा असमानता में कमी लाने के लिए तीव्र आर्थिक विकास का रास्ता ही एकमात्र उपाय है. कुल मिला कर हमें प्रो. अमर्त्य सेन और प्रो. जगदीश भगवती द्वारा प्रतिपादित आर्थिक नीतियों तथा माडलों के बीच एक समन्वय बनाना होगा ताकि जहाँ गरीबों को फौरी राहत मिले और उनके लिए जीवन कुछ आसान बन सके वहीं उन्हें वह रास्ता भी मिले जिससे वे गरीबी के दुष्चक्र से सदैव के लिए बाहर आ सकें और भारत में अंततोगत्वा असमानता कम हो . अन्यथा सामान्य गरीब जनता तो पिसती रहेगी ही,साथ ही समाज में तमाम सारी कानून और व्यवस्था की समस्याएं इस असमानता के रहते पैदा होंगी जिससे समाज का हर तबका प्रभावित होगा.
(संजय त्रिपाठी के ब्लॉग ‘अंतर्कथन’ से साभार)
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