तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाला अपना देश कई प्रगतिशील कानूनों के लिए दुनिया भर में सराहा जा रहा है लेकिन प्रगति के कई पैमानों पर इसकी तस्वीर घोर चिंताजनक भी है.
यह बात देशी-विदेशी कई संस्थानों द्वारा विभिन्न पैमानों पर जारी रिपोर्ट के जरिए सामने आती रहती है.कुछ समय पहले आस्ट्रेलियाई संस्था वॉक फ्री फाउंडेशन ने ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स में भारत को पहले स्थान पर रख हमें सोचने को मजबूर कर दिया कि आखिर क्यों एक उदारवादी और समतामूलक व्यवस्था वाले भारत देश में गुलामी की स्थिति में जीने वाले सबसे ज्यादा लोग हैं. यह सूचकांक कर्ज लेकर बंधुआ बने लोगों, जबरन विवाह और मानव तस्करी के आधार पर बनाया गया है. भारत इसमें टॉप पर है. यहां 40 लाख लोग ऐसे हैं जो गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं. हालांकि कुल आबादी के प्रतिशत के हिसाब से देखें तो हमारा स्थान मॉरीतानिया, हैती और पाकिस्तान के बाद चौथा है. सूचकांक जिन आधारों को लेकर तैयार किया गया है, उनमें केवल एक-‘जबरन विवाह’ वाले पक्ष को देखें तो यह भी लगेगा कि हमारे यहां गुलामों की तादाद 40 लाख से कहीं अधिक होगी. इसकी पुष्टि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में हुई. उसमें बाल विवाह रोकने से संबंधित जो प्रस्ताव आया, उससे जाहिर हुआ कि हमारे यहां हर साल दो करोड़ चालीस लाख बाल विवाह भारत में होते हैं जो कुल बाल विवाह का चालीस प्रतिशत है. ऐसी स्थिति की वजह सामाजिक पिछड़ापन और परिवार में महिलाओं की दोयम स्थिति है.
सूडान के संबंध में भी ऐसी ही रिपोर्ट सामने आई है. ब्रिटेन और पूर्वी अफीका में कार्यरत रिफ्ट वैली इंस्टीट्यूट ने सूडान के उत्तरी बहर अल गजल प्रांत में हजारों लोगों से बातचीत के बाद जो रिपोर्ट जारी की, उसके अनुसार यहां 20 वर्षों में लगभग 11000 लोगों का अपहरण करके उन्हें गुलाम बनाया गया. इनमें से ज्यादातर उत्तरी अरब के लड़ाकू कबीलों द्वारा गुलाम बनाए गए हैं. संयुक्त राष्ट्र ने भी कुछ दिनों पहले कुछ आंकड़े जारी किए थे जिसके मुताबिक दुनिया भर में दो करोड़ लोग अब भी गुलाम हैं. इन गुलामों में बंधुआ मजदूरों को भी शामिल किया गया है. ऐसे मजदूरों की संख्या भारत, पाकिस्तान तथा अन्य दक्षिण एशियाई मुल्कों में अधिक है. यहां बंधुआ मजदूरी की सबसे बड़ी वजह कर्ज है. खेती के काम में लगे मजदूर शुरू में गुजारे के लिए और फिर आगे खाद, बीज, रसायन आदि के लिए कर्ज लेते हैं. धीरे-धीरे कर्ज इतना बढ़ जाता है कि फसल की कटाई के बाद भी उसे चुकाना संभव नहीं होता. महाजन कर्ज न चुका पाने की सजा जीवन भर चौबीसों घंटे की गुलामी के रूप में देता है. कानून हालांकि इस प्रथा को लेकर काफी सख्त है किंतु शासन की लापरवाही से महाजनों तक कानून के हाथ पहुंच ही नहीं पाते. भारत के गरीब राज्यों में शुमार बिहार का एक मामला तो काफी चौंकाने वाला रहा. यहां जवाहर मांझी नाम के एक व्यक्ति ने गांव के भूस्वामी से अपने घर की एक शादी के लिए 40 किलो चावल उधार लिए थे जिसके एवज में वह तीस बरस से उस भूस्वामी के खेत में मजदूरी करता रहा. बंधुआ मजदूरों का कर्ज कई बार उन्हें गुर्दे बेचने के लिए भी बाध्य करता है. आज अवैध अंग व्यापार की एक बड़ी वजह बंधुआ मजदूरों की बुरी हालत है. मध्यपूर्व के देशों में कई प्रवासी कामगार भी गुलामों सा जीवन जी रहे हैं.
कानून भले ही बने हों लेकिन इसका पालन सही तरीके से नहीं हो पा रहा है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने ब्राजील में हो रही गुलामी प्रथा पर सरकार के प्रयासों की तो सराहना की, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि जहां मसला राजनीतिक नेता और न्यायधीशों के पद पर बैठे जमींदारों का होता है, वहां रास्ते में अड़चनें आती हैं. उसने ब्राजील की संसद में अटके कई प्रस्तावित कानूनों का कारण भी यही बताया. कमोबेश ऐसे ही हालात तमाम देशों के हैं. दरअसल बदले हालात में गुलामी प्रथा भिन्न रूप में सही किंतु अपनी मौजूदगी का अहसास लगातार करा रही है. बेरोजगारी और भुखमरी जैसी वैश्विक समस्या के रहते इसका खात्मा संभव भी नहीं. इसके खात्मे के लिए संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठनों के जरिये गंभीर प्रयास करने होंगे. घरेलू कामगारों के संबंध में ठोस कानून बनाने होंगे. खासकर मध्यपूर्व के देशों को बाध्य करना होगा कि घरेलू कामगारों की दशा पर सख्त निगरानी रखी जाए. पासपोर्ट जमा करा कर काम करने की व्यवस्था खत्म करनी होगी. भारत में हालांकि रोजगार गारंटी योजना के बाद बंधुआ मजदूरी के मामले में कुछ सुधार हुए हैं किंतु समस्या फिर भी बड़ी है. विश्व मानवाधिकार आयोग, संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे संगठनों को वैश्विक स्तर पर ऐसी कार्ययोजना बनानी होगी जो इस व्यवस्था पर नए सिरे से सोचे.
(प्रवीण कुमार के ‘राष्ट्रीय सहारा’ में छपे लेख का अंश)
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