बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी, 1950 से देश विरोधाभासों के दौर में प्रवेश करेगा, जहां एक व्यक्ति-एक वोट के सिद्धांत के आधार पर राजनीतिक समानता तो होगी, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में पसरी विषमता इस राजनीतिक समानता को निरुद्देश्य करती रहेगी.
उन्होंने चेतावनी भी दी थी कि हमें इस विषमता को समाप्त करने की जल्दी कोशिश करनी चाहिए, अन्यथा लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा. संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के अनुरूप आरक्षण की नीति इसी सामाजिक और आर्थिक विषमता को पाटने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा है.
आरक्षण संविधान को सामाजिक संस्थाओं से जोड़ता है, ताकि राजनीतिक शक्ति को शासक वर्गो के हाथों में जाने से रोका जा सके. अगर यूँ ही जातिगत आरक्षण चलता रहा और उसे जल्द ही रोका नहीं गया तो भविष्य में उसके दुष्प्रभाव कुछ इस तरह से सामने आ सकते हैं :
1 – सामान्य वर्ग वाले और दलित वर्ग के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हो सकती है.
2 – लाशों का अम्बर लग सकता है, जिनमे से कुछ लाशें आरक्षित वर्ग वालों की होंगी और कुछ लाशें सामान्य वर्ग वालों की.
3 – जातिवाद के नाम पर फिर से देश के दो टुकड़े भी हो सकते हैं. एक टुकड़ा हो जाएगा आरक्षित वर्ग वालों का और एक टुकड़ा हो जायेगा सामान्य वर्ग वालों का.
4- अयोग्यता को ही योग्यता पर प्राथमिकता देते ही जाने से योग्यता विध्वंसात्मक हो सकती है जो किसी के लिये लाभकारी नहीं होगा खासकर राजनीति और राजनेताओं के लिये.
इन सब बातों के मद्देनज़र उचित यही होगा कि हमारा राजनीतिक महकमा दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए यथाशीघ्र आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करे. इससे न केवल उक्त समस्याओं की संभावना पर विराम लगेगा, वरन आरक्षण अपने वास्तविक उद्देश्य को भी प्राप्त कर सकेगा.
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