लोकसभा चुनाव के तीन चरण बाद देश भर में चुनावी घमासान तेज़ है। करीब 15 फीसदी सीटें देने वाले देश के बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में बुआ-बबुआ का सीटों पर गठबंधन हो जाने से एक बार फिर यह बात साफ हो गई है कि भारतीय राजनीति में न कोई स्थायी दुश्मन है और न दोस्त और न ही भारतीय राजनीति में नैतिकता और शुचिता नाम की कोई चीज़ शेष रह गई है। सपा-बसपा गठबंधन के बाद अब हर किसी की नजरें यूपी की राजनीति पर केन्द्रित हैं।
दरअसल विपक्षी दलों की यही कोशिश रही है कि किसी भी प्रकार भाजपा को सत्ता से बाहर किया जा सके और इस लिहाज हर किसी की नजरें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश पर ही टिकी थी। यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा का विजय रथ रोकने में सफलता मिल गई तो उसे सत्ता तक पहुंचने से रोकना सहज हो जाएगा। यही कारण है कि यहां किसी भी दल की बड़ी जीत को राष्ट्रीय राजनीति में गेमचेंजर के रूप में देखा जाता रहा है। यह वही राज्य है, जिसने अब तक देश को जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चौ. चरण सिंह, राजीव गांधी, वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी सहित नौ प्रधानमंत्री दिए हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव में सहयोगी दल सहित 73 सीटें जीतकर केन्द्र में सरकार बनाने और विधानसभा चुनावों में भी 312 सीटें जीतकर सत्तारूढ़ हुई भाजपा को तो इस बात का बखूबी अहसास होगा ही कि इस राज्य में जीत उसके लिए क्या मायने रखती है, यही कारण है कि सपा-बसपा गठबंधन के बाद से भाजपा खेमे में बेचैनी का माहौल है। भाजपा चुनावी मुकाबले को तिकोना या चौकोना बनाने की कोशिशों में जुट गई है और संभवत: इसीलिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल सिंह यादव को प्रोत्साहित कर वह अपनी गोटियां फिट करने की जुगत में लगी है।
24 साल बाद मायावती ने मुलायम के साथ मंच साझा किया और सपा-बसपा के साथ मिल जाने और कांग्रेस के चुनाव में बगैर महागठबंधन के अकेले उतरने के चलते सियासी माहौल काफी दिलचस्प हो गया।
2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महज 7 सीटें जीत सकी थी और उसकी इस शर्मनाक हार का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि पहले जहां वह 27 सालों में राज्य का विकास अवरूद्ध होने को लेकर जिस सपा पर तीखे प्रहार करती रही, चुनाव में उसी सपा के साथ गठजोड़ कर जनता के सामने गई और कांग्रेस के इस दोहरे चरित्र को जनता ने नकार दिया। जहां तक अवसरवादी जातिगत क्षेत्रीय राजनीति के लिए विख्यात दो क्षेत्रीय दलों सपा और बसपा के गठबंधन की बात है तो दोनों ही दलों ने भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस को भी अपने निशाने पर रखा है और इससे साफ पता चलता है कि इस गठबंधन का स्पष्ट उद्देश्य यही है कि चुनाव के बाद केन्द्र में जो भी सरकार बने, उसके साथ सौदेबाजी के लिए तुरूप का पत्ता इनके पास रहे। वैसे इस गठबंधन की बिसात उसी दिन बिछ गई थी, जब एक-दूसरे की धुर-विरोधी बुआ-भतीजे की जोड़ी ने साथ मिलकर गोरखपुर तथा फूलपुर के उपचुनावों में भाजपा को जबरदस्त पटखनी दी थी। सियासी फायदे के लिए उसी जीत के बाद तमाम पुरानी कड़वी यादों को भुलाकर दोनों ने एक-दूसरे पर जुबानी हमले बंद करते हुए साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरने का निश्चय कर लिया था। स्मरण रहे कि जहां गोरखपुर तथा फूलपुर में बसपा ने सपा प्रत्याशी का समर्थन किया था और दोनों सीटें सपा जीत गई थी, वहीं कैराना उपचुनाव में सपा ने रालोद को समर्थन दिया था और उसका प्रत्याशी भी जीत गया था। इसी से प्रभावित होकर सपा-बसपा ने लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत गठबंधन का ताना-बाना बुना और 25 साल बाद एक-दूसरे के साथ गठजोड़ कर चुनाव मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया। इससे पहले दोनों दलों ने 1993 में मुलायम सिंह यादव तथा कांशीराम के नेतृत्व में गठबंधन कर चुनाव लड़ा था और सरकार बनाई थी, तब सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें मिली थी किन्तु 2 जून 1995 को लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित गेस्ट हाउस में सपा कार्यकर्ताओं द्वारा मायावती के कमरे में तोड़फोड़ और मायावती के साथ कथित मारपीट के बाद यह गठबंधन टूट गया था। बहरहाल अगर 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनावों में दोनों दलों के वोट प्रतिशत को देखें तो सपा-बसपा के गठबंधन को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 2017 में जहां भाजपा 41.35 फीसदी मतों के साथ 325 सीटें जीतने में सफल हुई थी, वहीं सपा 28.07 फीसदी मतों के साथ महज 54 सीटें और बसपा को 22.23 फीसदी मतों के साथ सिर्फ 19 सीटें मिली थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 42.63 फीसदी मतों के साथ 71 सीटें मिली थी जबकि सपा को 22.35 फीसदी मतों के साथ सिर्फ 5 सीटों पर संतोष करना पड़ा था और 19.77 फीसदी मत प्राप्त करने वाली बसपा का खाता तक नहीं खुला था। कांग्रेस को 7.53 फीसदी मतों के साथ सिर्फ दो सीटें मिली थी। पिछले चुनाव परिणामों पर भी नजर डालें तो 2004 के लोकसभा चुनाव में सपा को 35 और बसपा को 19 तथा 2009 में सपा को 22 और बसपा को 20 सीटें मिली थी। दोनों दलों का राज्य में मजबूत जातीय आधार है। मध्य उत्तरप्रदेश में जहां सपा की मजबूत पकड़ मानी जाती है, वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा का जनाधार है। 28 लोकसभा सीटें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हैं, जहां 2014 के चुनाव में सपा 3 सीटों पर जीती थी जबकि 13 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी और बसपा 9 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी। माना जा रहा है कि करीब 41 सीटों पर यह गठबंधन मजबूत स्थिति में है। हालांकि दोनों ही दलों पर उनके सत्ता में रहते अपराधियों को संरक्षण देने, भारी अनियमितताओं और विकास कार्यों की अनदेखी जैसे गंभीर आरोप लगते रहे हैं। सपा कुछ ही समय पहले बड़ी टूट की शिकार हुई है और बसपा के जातीय समीकरणों में कुछ छोटे दल सेंध लगा चुके हैं। दूसरी ओर भाजपा और कांग्रेस भी इस महासमर को जीतने के लिए अपनी सारी ताकत झोंकने के लिए तैयार हैं। नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री चुनने के लिए उत्तर प्रदेश के विकास का मंत्र देकर गठबंधन को बाहर करना बीजेपी का लक्ष्य है, इसलिए बुआ-बबुआ की जोड़ी के लिए गठजोड़ के बाद भी मुकाबले को जीतना इतना आसान नहीं होगा। बहरहाल, मोदी मोदी के शोर में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश में आम चुनावों में ऊंट किस करवट बैठता है।
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